ऊना / 05 फरवरी / राजन चब्बा
ईष्वर के प्रति की गई प्रार्थना फूलों की सुगंध जैसी होती है। भावपूर्ण समर्पण एवं अर्चना के वचनों में हमें तर्क-वितर्क नहीं करना चाहिए। सच्चाई तो यह है कि हमारी प्रार्थना में ही परमात्मा का द्वार छिपा है। जब-जब हमारी निर्मल आंखें असीम परमेष्वर की ओर उठती हैं तो हृदय आनंद से परिपूर्ण हो उठता है। श्रीमद् भागवत जी की कथा अनंत ब्रह्म को छू लेने की कला सिखाती है। मनुश्य होकर जो प्रभु से प्रेम न कर सके वह हृदय नहीं पत्थर है।
उक्त ज्ञानमय कथासूत्र श्रीमद् भागवत कथा के द्वितीय दिवस में परम श्रद्धेय स्वामी अतुल कृष्ण जी महाराज ने ठाकुरद्वारा, बढेड़ा में व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि संपूर्ण सृश्टि के कण-कण में व्याप्त प्रभु की पहचान सूक्ष्म एवं प्रीति भरी आंखें ही कर सकती हैं। अलग-अलग दीपक में प्रकाष एक ही है। चंपा, चमेली, गुलाब एवं जुही में सौन्दर्य एक ही है पर अभिव्यक्तियां भिन्न-भिन्न हैं। गुलाब के कांटे और फूल दोनों में एक सत्ता नृत्य कर रही है। बाहर की गई आराधना, पूजा-पाठ अंतध्र्वनि सुनने में सहयोग करते हैं। बंूद सागर में मिल कर विराट हो जाती है। एक छोटी सी लौ अनंत प्रकाष में खोकर अनंत ही हो जाती है। अज्ञान से भरा चित्त अपनी क्षुद्रता के मिट जाने को मृत्यु समझता है, यही हमारी भूल एवं भय का कारण है।
अतुल कृष्णजी ने कहा कि मिट्टी के घड़े को नदी में डुबा दें तो पानी से भर जाएगा। बाहर भी वही पानी है भीतर भी वही पानी। बीच में बस एक मिट्टी की दीवार खड़ी हो गई। अब घड़े का पानी अलग मालुम होता है और नदी का पानी अलग। अभी-अभी दोनों पानी एक थे, अभी भी एक ही हैं। बीच में बस जरा सी घड़े की दीवार आ गई। इसी तरह हमारे और ईष्वर के बीच में अहंकार की एक क्षीण सी भाव दषा है जो दोनों को अलग किए हुए है। आज कथा में भगवान कपिल का प्राकट्य, भगवान षिव-पार्वती विवाह, ध्रुव जी का चरित्र एवं राजर्शि भरत जी का प्रसंग सभी ने अत्यंत भाव विभोर होकर सुना। कथा के पष्चात सभी ने रोज चल रहे विषाल भंडारे का भी आनंद लिया।