स्वामी अतुल कृषण जी महाराज ने ठाकुरद्वारा में व्यक्त किए श्रीमद् भागवत कथा के ज्ञानमय कथासूत्र
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ऊना/09 फ़रवरी/न्यू सुपर भारत
वैराग्य के उदय होने पर ही ईष्वर की ओर यात्रा संभव है। स्नेह की
बूंद में डूब कर मन की वासना पूजा बन जाती है। प्रकृति एवं परमात्मा मौन
हैं। मौन के साथ मौन होकर ही यात्रा की जा सकती है। जहां दो मौन
होते हैं वहां दो होकर भी दो नहीं रह जाते। द्वैत का अंत हो जाता है।
जिन्दगी का कारवां थक जाय उससे पहले हमें विश्रांति का ठिकाना खोज लेना
चाहिए।
उक्त ज्ञानमय कथासूत्र श्रीमद् भागवत कथा के शश्ठम दिवस में परम श्रद्धेय
स्वामी अतुल कृश्ण जी महाराज ने ठाकुरद्वारा, ब-सजयेड़ा में व्यक्त किए। उन्होंने
कहा कि हमारी चुप्पी एवं मौन के सन्नाटे में ही षांति के फूल खिल सकते
हैं। परमेष्वर की आराधना आपाधापी में नहीं हो सकती। द्वंद्व रहित चित्त से ही
प्रभु की पूजा की जा सकती है। हमें पुरानी आदतों एवं बासी विचारों से बचना
चाहिए, यह साधना की ओर ब-सजय़ते कदमों में बेड़ियों का काम करती हैं। जो
अपने भजन में सावधानी नहीं रखते अंत में उनकी -हजयोली खाली ही रह जाती
है।
अतुल कृश्ण जी ने कहा कि मनुश्य का मन ऐसा है, जो पास में नहीं है उसी
की आकांक्षा करता है। ऐसे ही जो पास में है उससे विरक्ति हो जाती है। इस
प्रकार के लोगों की सम-हजय नाममात्र की ही होती है। प्रभु नाम का दिया जला
लेने से षरीर रूपी महल में उजाला हो जाता है। भगवान के नाम से जन्म-ंउचयजन्मान्तर
की दरिद्रता सदा के लिए ही मिट जाती है। ईष्वरीय प्रेम के आगे संसार के सारे
वैभव तुच्छ हैं। आज कथा में भगवान को 56 भोग अर्पित किया गया।
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श्रीधाम वृन्दावन के महावन में भगवान द्वारा महारास, मथुरा में आकर कंस का
वध करना, सांदीपनि ऋशि के आश्रम जाकर विद्या प्राप्त करना, समुद्र में द्वारका नगर निर्मित
करवाना एवं भगवान के सोलह हजार एक सौ आठ विवाहों का दिव्य प्रसंग सभी ने
बड़ी तन्मयता से सुना। इसके पष्चात सभी ने भगवान श्रीकृश्ण एवं देवी रुक्मिणि
के विवाह की सुन्दर -हजयांकियों का दर्षन किया।